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Tuesday, September 20, 2011


कुछ आदत सी हो गयी सदमों की
अब आहट दे अपने क़दमों की
फिर से मुझको हैरानी दे दो |
सूनी है कोरें आँखों की
खुश्की अब इनमें चुभती है
सपने गर तुम दे न पो
आकर के कुछ पानी दे दो |
सच कहता हूँ तंग आ चुका
शोरो गुल की दुनिया से
आ जाओ तन्हा हो तुम भी
मुझको भी वीरानी दे दो |
लड़ते लड़ते थक जाता हूँ
अपने ही कुछ सायों से
मुश्किल बहुत हुई ज़िन्दगी
तुम पे मरने की आसानी दे दो |


जहाँ को थी न ये उम्मीद की हम कुछ कर दिखायेंगे
कोई पूछे हमें तो हम तुम्हारा नाम लायेंगे,
करवटों में कटी रातें और हमने बस गिने तारे
खबर क्या थी की टूटते तारों से दुनिया मांग लायेंगे |

राह में चलते जुदा वो कब हुए, मालूम क्या
हम तो हर मोड़ पे बेफिक्र निकले कि वो साथ आएंगे
वफ़ा के जज्बे हैं अहसास, कोई दावे नहीं दिलबर
साथ जो जी नहीं सकते वो क्या मर के दिखायेंगे |

ज़िन्दगी गुमनामियों में थी कटी अपनी
न जाना मर के इतना नाम पाएंगे
बंदापरवर यकीं करिए तुरंत हो जाते हम रुखसत
पता होता अगर कि आप मेरे मकबरे बनायेंगे |

लोग उस सीप को बेकार ही चूमें जो दे मोती
ये काम है उस बूद का जो मिल गयी उससे
इनायत आपकी कि हमसे कर लेते हैं दो बात
वरना हम थे किस काबिल, ग़ज़ल हम क्या बनायेंगे |

बारिश


तुम चले गए कोई बात नहीं पर एक शिकायत है तुमसे
जाने तुम क्या कह जाते हो जाते जाते इस मौसम से
वो ले जाता है बहारों को, आ जाता है सावन छम से
वो भी बरसे, हम भी बरसें, न हम कम न वो कम हमसे

ज़िद


हम तो समझे थे इक हम ही हुए हैं छलनी
नज़र जाती है जहाँ, चाक ज़िगर बैठे हैं |
तुम तो रखते हो जुबां, फिर भी नसीब वाले हो
लोग ऐसे भी हैं जो लब को सिले बैठे हैं |
बात कुछ है तो ज़रूर, इतना तो तय है लेकिन
हम भी जाने नहीं हम किससे खफा बैठे हैं |
अपने हर दर्द को कागज़ से ही कह देंगे हम
दर्द पीने को यहाँ, कौन मेरे बैठे हैं |
कोई आएगा कभी शब ए तन्हाई में
बस इसी आस से हम रतजगे पे बैठे हैं |
जीत पाते नहीं , और हार तो सकते नहीं हम
जब तलक साँस है, तलवार लिए बैठे हैं |

चिलचिलाती धूप भरी ज़िन्दगी की राहों पर
चलते नंगे पैर जब मुश्किल लगे तुमको सफ़र,
उदासी की गहरी धुंध छा रही हो रूह पर
या अँधेरी रात की दिखती न हो कोई सहर,
मंजिलों की राह तकते बुझने को हो तेरी नज़र
पाँव के छाले थकें और ख़त्म न होए डगर,
ज़वाब न दे ज़िन्दगी जब किसी सवाल पर
घेर ले कश्ती तेरी जब कोई गहरा भँवर,
चेहरों की भीड़ में कोई अपना न पाओ अगर
हौंसला हो टूटने को लड़ते हुए जीवन समर,
मोड़ हो कोई भी वो याद रखना तुम मगर
फैली हुई तेरे लिए हैं, दो बाँहें हर प्रहर |

दिलज़ले




बेकद्री की हद कर दी काहिल ज़माने ने
सितारे जब दिए रब ने कहा गर्दिश में हैं सारे |
'सिफ़र' तू ग़म न कर तकदीर पे उस बेमुरव्वत की
की जिसकी लाय्कत जितनी उसे उतना ही मिलता है |
तो क्या बरस जाए अगर सावन भी सेहरा में
वहां कांटे ही उगते हैं कभी गुलशन न खिलता है |
जब पानी में था सूरज किसी ने इक नज़र न दी
सहर से दोपहर हो जाए तभी आँखों में चुभता है |
ज़र्रा भी हवाओं में बड़ी परवाज़ भरता है
ज़रा तूफाँ थमें तो क़दमों में ही पिसता है |
बड़ा नादाँ था 'सिफ़र' भी, वफ़ा भी पेश की किसको
वो महबूब तो गाफिल अदाओं पे ही मरता है |

कसक


क्या बात है चेहरे में तेरे हैरां हूँ
देख के तुझे, होती है जीने की ललक
बदल जाती है फिज़ा पतझड़ की
बहार आती है पाके तेरी जुल्फों की महक
शबे ग़म टिक नहीं सकती ज़रा देर को भी
मिले जो आफताब से तेरे चेहरे की झलक
तू जो मिल जाये कहूँ क्या, बस इतना समझ
जमीं पे चलने वाले को ज्यों मिल जाए फलक
काश की छोड़ के दुनिया तुझे पाया होता
सोच कर आज तक होती है इस दिल में कसक..